Thursday, November 8, 2018

शिक्षा का अर्थ

शिक्षा का अर्थ

मोहल्ले में हमारे एक पड़ोसी की चर्चा उनकी तीन साल की बेटी की वजह से आजकल खूब जोरों पर है। कारण है तोतली आवाज़ में बच्ची द्वारा कुछ याद करा दिए गए प्रश्नों का उत्तर अंग्रेजी में फटाफट देना। अधिकतर प्रश्न सामान्य ज्ञान टाइप के हैं जिन्हें दूसरों के सामने वह पड़ोसी दम्पति बड़े विश्वास के साथ बच्ची से अंग्रेजी में पूछता है और बच्ची भी कभी खुश होकर, कभी ऊबते हुए उनका उत्तर फटाफट देती जाती है। प्रश्नों की खास प्रवृत्ति यह भी है कि उसमें अमेरिका संबंधी भौगोलिक, राजनीतिक और सामाजिक जानकारी पर फोकस है। यह दंपत्ति हर बार की प्रश्नोत्तरी के बाद यह बताना और जताना नहीं भूलता कि वे अपनी बेटी को पढ़ने के लिए यू एस ए भेजेंगे और इसी की तैयारी के लिए उसका दाखिला एक मंहगे इंगलिश मीडिया प्राइवेट स्कूल में कराया गया है। हमारे यहाँ बच्चों के लिए अपेक्षाओं से पगे भविष्य की तैयारी वैसे तो लगभग हर माँ के लिए सामान्य बात है। पर मध्यवर्गीय परिवारों में अपेक्षाओं का यह बोझ पूँजीवादी प्रतियोगी बाजार व्यवस्था में टिके रहने के लिए निरंतर कौशल विकास करते रहने, अंग्रेजी में पारंगत रहने जैसी खुद उनके द्वारा भोगे गए अनुभव से निर्मित होती है। इन अनुभवों में रचनात्मकता और आलोचनात्मक क्षमता जैसे गुणों के विकास की जगह निर्देशों के कुशलतापूर्वक पूर्ण होने, किसी खास काम को करने में निपुण होने जैसी बातें ज्यादा जरूरी मानी जाती हैं। चूँकि निरंतर परिवर्तनशील बाजार व्यवस्था में टिके रहने के लिए ए भी कोई गारंटी नहीं होती इसलिए बदलाव के अनुरूप हमेशा तैयार रहना वो भी बिना कुछ सोचे समझे या प्रश्न उठाये बहुत जरूरी है। यहाँ शिक्षा की भूमिका मात्र आर्थिक संरचना और उसके लक्ष्यों की पूर्ति करने वाले साधन की है। पर क्या यह पर्याप्त है? क्या मानव जीवन का लक्ष्य चल रही व्यवस्था में जगह बनाना मात्र है? इसमें स्वयं उसकी इच्छा, क्षमता, रचनात्मकता और विकास के अवसर के लिए क्या कोई जगह है?
    हाल ही में एक संगोष्ठी में बोलते हुए प्रमुख शिक्षाविद् प्रो. कृष्ण कुमार ने वर्तमान में प्रचलित शिक्षा के इसी सीमित आर्थिक समझ पर आधारित होने पर अपनी निराशा जताते हुए इसे भावी पीढियों के लिए खतरनाक बताया। उनके अनुसार इतनी असुरक्षित और गैर टिकाऊ विकास पर आधारित यह दुनिया ज्यादा आगे तक नहीं जा सकती। इसके लिए हमें अपने बच्चों को जागरूक, संवेदनशील और आलोचनात्मक चेतना से लैस बनाना होगा जिससे वे उपयोगी व सकारात्मक हस्तक्षेप करने योग्य बनें, अपने आसपास की दुनिया की समस्याओं की समझ बनाते और उससे जूझते हुए निदान ढूँढ पाएँ। पर आज जब बस टिके रहने हेतु आवश्यक आर्थिक कौशल को ही शिक्षा का पर्याय माना जा रहा हो, समाज और प्रकृति की स्वभाविक विविधता से परे एकल व उग्र राष्ट्रीय पहचान पर लोगों को भावुक बनाकर भ्रमित किया जा रहा हो तो इन पर कैसे बात की जाए? कैसे मौजूदा स्वरूप और विमर्श को बदलकर शिक्षा के व्यक्तिगत और सामूहिक लक्ष्यों की पुनर्व्याख्या की जाए?
        इसका कोई एक जवाब तो निश्चित रूप से नहीं दिया जा सकता। मजबूती से जम चुकी पूँजीवादी- बाजारवादी अर्थव्यवस्था जो प्रतियोगिता के नियम और लाभ के उद्देश्य से संचालित है, शिक्षा व्यवस्था को भी इसी के अनुरूप सहयोजित करने में लगी हुई है। आज भले ही विभिन्न देशों में निर्धारित और घोषित शैक्षिक पाठ्यचर्या स्वयं में लोकतांत्रिक- मानवीय मूल्यों व लक्ष्यों से लैस दिखती हों किंतु व्यवहारिक रूप से इसे व्यक्त नहीं करतीं। हमारे देश में इस समय स्कूलों में पढ़ाए जा रहे पाठ्यक्रम और समस्त शैक्षिक प्रक्रियाएँ 'राष्ट्रीय  पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005' पर आधारित होने का दावा करती हैं। यह दस्तावेज स्कूलों में बच्चों की व्यक्तिगत भिन्नताओं- क्षमताओं के सम्मान देते हुए अधिगम के अवसर देने, विविधताओं को सम्मान देते हुए लोकतांत्रिक मूल्यों का विकास करने, अपने आसपास के परिवेश से जुड़ने, समस्याओं पर चिंतन करने और आलोचनात्मक चेतना से लैस होकर निर्णय लेने योग्य बनाने जैसे वृहत्त शैक्षिक लक्ष्यों को स्वयं में समाहित किए हुए है। पर वास्तविकता में हमारी शिक्षा व्यवस्था आज भी रटन्त आधारित और परीक्षा परिणामों पर केन्द्रित बनी हुई है। स्कूलों में भी निजी और सरकारी का विभाजन इसके शैक्षिक स्वरूप को गहरे तक प्रभावित करता है। इस मोटे विभाजन में भी कई अन्य तरह के स्तरीकरण समाहित हैं। जैसे निजी में कुछ बहुत मंहगे स्कूल जो स्वयं को अंतरराष्ट्रीय स्तर के होने का दावा करते हैं तो कुछ कम मंहगे और साधारण मध्यवर्गीय लोगों की आर्थिक क्षमता के अनुरूप अंग्रेजी माध्यम स्कूल हैं। वहीं सरकारी स्कूलों में भी अलग-अलग सामाजिक, आर्थिक समूहों के हितों और हैसियत के अनुरूप स्कूलों की श्रृंखला है। जैसे बिल्कुल साधारण व सामान्य सरकारी स्कूल जिसमें अधिकांशतः गरीब घरों के बच्चे शिक्षा लेते हैं। ग्रामीण मध्यवर्गीय परिवारों की अपेक्षाओं के अनुरूप नवोदय विद्यालय, सरकारी कर्मचारियों के बच्चों हेतु केन्द्रीय और सैनिक स्कूल इसी तरह प्रतिभा और एक्सीलेंस जैसे अंग्रेजी माध्यम स्कूल आदि। स्कूली व्यवस्था में व्याप्त यह स्तरीकरण 'शिक्षा के' और 'शिक्षा में' निर्धारित किए गये लोकतंत्रीकरण के लक्ष्यों को बाधित करती है। नई शिक्षा नीति, 1986 के समय से ही 'समान स्कूल व्यवस्था' (कॉमन स्कूल सिस्टम) के लिए घोषित किए गये राष्ट्रीय संकल्प को पूरा करके ही इस विचलन को दूर किया जा सकता है। इसमें 'पड़ोस के स्कूल में ही सबके लिए अनिवार्य शिक्षा' और 'प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा को माध्यम बनाने' जैसे कदम काफी मददगार हो सकते हैं। वर्तमान स्तरीकरण जहाँ विभेदों को मजबूत बनाते हैं वहीं घोषित शैक्षिक लक्ष्यों को भोथरा भी। इसके अलावा शिक्षा की प्रक्रिया में ऐसे आर्थिक कौशलों को भी समाहित करना होगा जो हमारे बच्चों को बड़े होने पर आत्मनिर्भर, स्वतंत्र और खुशहाल जीवनयापन योग्य बनाए न कि निर्देशों को मानने वाले रोबोट जो बस दूसरों की इच्छा या कृपा पर निर्भर हों। 
      इन गुणात्मक बदलावों की सिद्धि हेतु बच्चों में आलोचनात्मकता, रचनात्मकता और संवेदनशीलता का विकास बहुत मायने रखता है। निर्देशित शिक्षण के बजाय उन्हें अपने संदर्भ में समस्याओं को पहचानने, उनका निदान ढूँढने, पहल करने, सकारात्मक हस्तक्षेप कर पाने, दूसरे के नजरिये से सोच सकने व विविधताओं के लाभ समझ पाने जैसे अनुभव प्राप्त करने के भरपूर अवसर मिलने चाहिए। तभी वे इस संकटग्रस्त दुनिया को बेहतरी की ओर बढ़ाने में सक्षम बन पाएँगे साथ ही फिजूल में खड़े किए गए मुद्दों और संकीर्णताओं के जाल से निकलकर मानवतापूर्ण समाज की स्थापना कर पाएंगे। इस उद्यम में आधारभूत संरचना के विकास सहित कक्षा कक्ष की शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया और शिक्षकों के प्रशिक्षण में प्रासंगिक बदलाव भी बहुत महत्वपूर्ण है। शिक्षा जैसे नितांत जरूरी मुद्दे पर भी हमारे देश में गहरी सरकारी उदासीनता दिखाई देती है जिसके परिणामस्वरूप निजी स्कूलों की बाढ़ सी आ गई है। सरकारी शिक्षा व्यवस्था की खस्ताहाली और छवि धूमिल होने से लोग भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों के हवाले कर रहे हैं। यह प्रवृत्ति निरंतर चालू है। पर एक महत्वपूर्ण बदलाव को यहाँ जरूर रेखांकित करना चाहूँगा और वो है पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली के सरकारी स्कूलों की स्थिति में सुधार हेतु किये जाने वाले प्रयास। एक शिक्षक के रूप में मैंने इसे बहुत करीब से अनुभव किया है कि संरचनागत बदलावों के साथ साथ मूल्यांकन, कक्षा कक्ष में प्रक्रिया, सेवाकालीन शिक्षक प्रशिक्षण आदि में बदलाव हेतु सरकार द्वारा सचेष्ट प्रयास किए जा रहे हैं। यद्यपि इसके परिणाम दीर्घकाल में ही देखे जा सकेंगे। पर राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा न तो अभी तक मुख्य एजेंडा है और न ही इसमें बदलाव का कोई गंभीर प्रयास दिखाई देता है। इस मुद्दे पर बिना व्यापक सामाजिक जागरूकता और दृढ़ राजनीतिक प्रतिबद्धता के वांछित बदलाव होना मुश्किल है। हमें गंभीर होकर सोचना पड़ेगा कि शिक्षा का स्वरुप चंद पूंजीपतियों के हितों से संचालित बाजार निर्धारित करेगा या हमारे सामूहिक इतिहास और विकास यात्रा में निर्मित श्रेष्ठ मानवीय चेतना इसे आकार देगी। बेशक दूसरा विकल्प ही हमें बचा सकता है।

-आलोक कुमार मिश्रा
         

Tuesday, October 30, 2018

लोक के राम या राजनीति के जय श्री राम



चुनावी मौसम आ गया है। राजनीति में राम की जय जयकार चहुँ ओर गूँजने लगी है। किंतु भारतीय लोक मानस में राम कोई मौसमी आमद नहीं हैं। राम और राम की जीवनवृत्ति भारतीय संस्कृति और परंपरा में गहराई से गुथी हुई है। बाल्मीकि लिखित रामायण हो, तुलसी का मानस हो या किसी और महाकवि की राम को लेकर रचना सब लोक के 'रामायण' में गुंथे हुए हैं वहीं इनके अपने भिन्न आयाम और वर्जन भी हैं। इनका कुछ हिस्सा लिखित स्त्रोतों से निकला है तो बहुत बड़ा हिस्सा श्रुति और मौखिक परंपरा से आगे बढ़ा है। क्षेत्र और समुदाय के हिसाब से इनमें पर्याप्त विविधता तो है किंतु मान्यता और सम्मान के स्तर पर लोक के राम इन लिखित महाआख्यानों के राम से कमतर नहीं हैं। बल्कि अपने इस वैविध्य से ही राम भारतीय समाज में सर्वग्राही और सर्व सुलभ रहे हैं। यह विशेषता ही राम की सही मायने में लोक में पैठ का बड़ा कारण रही है। इसे नामों, परंपराओं, व्यवहारों या अन्य विविध संदर्भों में देखा जा सकता है।
    पर समाज या लोक के राम के बरक्स राजनीति के राम जिसका उद्भव एक आधुनिक घटना है कुछ अलग है। राजनीति के राम लोक के बहु आयामी राम की जगह एकरूपी हैं। यह धारा लिखित परंपरा पर आधारित होने का दावा तो करती है किंतु वह उनसे वही हिस्सा या पक्ष उठाती है जो राजनीतिक फायदे के नजरिये से काम आ सके। हाल के वर्षों में राम के शूरवीर और बहुसंख्यक समाज के नायक की पुख्ता होती छवि में यही राजनीति काम करती रही है जो अयोध्या में उपजे विवाद और मस्जिद ध्वंस तक चरम पर पहुँच गई। आज की राजनीति में राम फिलहाल इसी छवि में विराजमान हैं। लोक मानस के राम जो कई मायनों में अधिक तार्किक, लोक जीवन के निकट, मानवीय और विविधता के अनुरूप है इस राजनीतिक छवि वाले राम से अलग हैं। कुछ मामलों में तो यह राजनीतिक धारा अपनी रूढ़ समझ और सीमित उद्देश्य के अनुरूप इन लोक छवियों को अपने खिलाफ मानती है। मुख्यधारा के संचार माध्यमों से इन विविध लोक धाराओं को साजिश के तौर पर प्रचारित करना और राम की सुकोमल, आज्ञापालक, मर्यादापूर्ण व अधिक मानवीय छवि की जगह युद्ध नायक की छवि को उभारना राजनीतिक धारा का मुख्य शगल रहा है। कुछ वर्ष पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में रामायण के प्रचलित विविध वर्जन संबधी किसी पुस्तक को लेकर बहुत विवाद काटा गया। क्योंकि इसमें राजनीतिक धारा द्वारा प्रचारित राम के रूप से अलग भारतीय समाज के भिन्न-भिन्न स्वरूपों में प्रचलित बहुकथाओं की बात कही गई थी। पर यह घटना वास्तविकता को दबा नहीं सकती थी। यहाँ वैसे भी 'हरि अनंत हरि कथा अनंता ' का भाव मान्य रहा है।
      पूर्वी उत्तर प्रदेश से संबंधित होने के कारण उस क्षेत्र में प्रचलित मौखिक परंपरा के राम को भी मैं उतना ही जानता हूँ जितना बाल्मीकि या तुलसी के राम को। भारतीय समाज का प्राचीन समय से ही वर्ण व्यवस्था और पितृसत्तात्मक संरचना पर आधारित होने के कारण यहाँ के लिखित आख्यानों में भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है। इसमें किसी बड़ी घटना के घटित होने की जिम्मेदारी आसान शिकार की तरह समझे जाने वाले कमजोर तबके से जुड़े लोगों  के सिर पर डाल देने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। रामायण की कहानी में दासी मंथरा की साजिश, धोबी के ताना देने पर सीता जी को वनवास देना, कैकेयी के षड्यंत्र, शूर्पनखा की खल भूमिका आदि को सभी बुरी घटनाओं के उत्प्रेरक के रूप में दिखाया गया है। महाभारत के आख्यान में भी कुछ यही स्त्री और 'शूद्र' विरोधी प्रवृत्ति दिखाई देती है। किंतु लोक की मौखिक परंपरा जो जन समुदायों की थाती है बहुत तरीके से इन मान्यताओं का प्रतिरोध ही नहीं करती बल्कि कहीं अधिक मानवीय और कुछ मामलों में अधिक तार्किक वर्जन उपलब्ध कराती हैं। मेरे दादाजी सहित अन्य बड़े बूढ़े या बूढ़ियों से मैंने राम के एक बहन होने की मान्यता के बारे में सुना था। जबकि इस बारे में बाल्मीकि या तुलसी की रचनाओं में कोई जिक्र नहीं है। ऐसा कहा जाता है कि वनवास से लौटने के बाद राजा बनने के बाद श्री राम ने सीता जी का त्याग करते हुए वनवास भेज दिया था। इस घटना में एक धोबी द्वारा दिए गये सीता जी से जुड़े ताने को कारण माना जाता है जिसमें उसने रावण की लंका में सीता जी के रहने के कारण उनकी शुचिता पर प्रश्न उठाया गया था। इस बात को प्रजा पालक राम ने प्रजा की इच्छा मानते हुए सीता का त्याग कर दिया। इस पूरे प्रकरण में स्वयं राम की इच्छा या सीता को लेकर उनके मन में रहे भावों की कोई भूमिका नहीं दिखाई जाती जबकि सीता की अग्नि परीक्षा लेकर राम पहले से ही इस मामले में अपनी सोच को दर्शा चुके थे। अब इसी घटना को मेरे गाँव की लोक परंपरा के मौखिक आख्यान में जिस तरह से दुहराया जाता है वह कहीं अधिक वास्तविक और तार्किक जान पड़ता है। इस कथा में दुहराया जाता है कि ' वनवास से लौटने और राम के राजा बन जाने के बाद एक दिन सीता जी से उनकी नन्द यानि राम की बहन ने राम रावण युद्ध के बारे में विस्तार से जानना चाहा। जब सीता जी ने उन्हें पूरी कथा विस्तार से सुनाई तब उनके मन में यह जानने की इच्छा जागृत हुई कि रावण जैसा बलशाली और प्रतापी व्यक्ति दिखता कैसा था? नन्द की इच्छा को देखते हुए सीता जी ने अपनी स्मृति से रावण का एक चित्र बनाकर दिखाया जोकि हूबहू वास्तविक रावण जैसा ही था। यह चित्र जब राम जी ने देखा तो उनके मन में सीता को लेकर यह संशय पैदा हुआ कि आखिर बिना पूरे मन से आसक्ति के साथ रावण को निहारे बिना सीता ऐसा जीवंत चित्र कैसे बना सकती हैं? यहीं से उनके मन में सीता जी के प्रति विरक्ति पैदा हो गई और उन्होंने उनका त्याग कर दिया।' राम की एक बहन होने की एक पुष्टि अभी हाल ही में एक चैनल पर दिखाए गए सीरियल 'सिया के राम' से भी हुई जिसमें लिखित परंपरा के आधार पर उस चरित्र का नाम 'शांता' होने का दावा किया गया था। हालांकि उसमें इस कथा का वर्णन न होकर इसे दूसरे संदर्भ में प्रस्तुत किया गया था। अब इस लोक कथा को हम देखें और लिखित तथा व्यापक रूप से प्रचलित कहानी को भी देखें तो लोक कथा समाज के निम्न माने जाने वाले तबको स्त्रियों या 'अवर्णो' पर दोष डालकर बरी हो जाने की लिखित व पारंपरिक प्रवृत्ति के बजाय ज्यादा मानव सुलभ स्वभाव के अनुकूल है। अब राजनीतिक धारा भले ही राम पर दोषारोपण की इस लौकिक परंपरा को षडयंत्र माने किंतु यहाँ के लोकगीतों में भी स्त्रियाँ इसे अन्याय मानते हुए अपना सशक्त प्रतिरोध जताती हैं। ऐसा करते हुए कहीं से भी राम की महत्ता या गरिमा कम नहीं होती बल्कि राम कथा का एक अर्थ में लोकतंत्रीकरण ही होता है जिसमें प्रजा या भक्त सवाल उठा सकते हैं।
     ऐसी ही भिन्न प्रस्तुति और भी कई लोक कथाओं या मौखिक परंपराओं में उपस्थित हैं। इसी क्षेत्र में कास नाम के एक विशेष घास जो धारदार होते हैं से जुड़ी मान्यता भी प्रतिरोध और प्रतिवाद की संस्कृति को बयान करती है। माना जाता है कि ए पवित्र घास सीता जी के बाल हैं। जब वह अंतिम समय में पृथ्वी की गोद में समाने लगीं तब दौड़कर श्री राम ने उन्हें पकड़ना चाहा। इस कोशिश में सीता जी के बाल उनके हाथ में आए, किंतु राम से नाराज सीता जी के केशों ने इस धारदार घास का रूप रख लिया और राम जी को उसे छोड़ना पड़ा। यह मान्यता कहीं न कहीं परंपरा में निहित स्त्रीवादी प्रतिरोध को ही दर्शाती है। इसी तरह सीता जी के जन्म, विवाह, रावण से संबंधित जीवन पक्ष आदि पर मौखिक परंपरा में कई भिन्न कथाएँ प्रचलित हैं। लोकगीतों में सीता जी द्वारा माता कौशिल्या को उलाहना देते हुए यह कहना कि 'काहे जन्म्यू तू ऐसन पपियवा कि नाही निभवलिस वचनिया रे राम ' (यानि तुमने ऐसे पापी को जन्म क्यों दिया जो अपने विवाह के वचन भी नहीं निभा सका) कहीं न कहीं स्त्रियों का स्त्रियों के पक्ष में दुहराया जाने वाला समवेत स्वर है। राजनीति इस वैविध्यपूर्ण और सार्वभौमिक राम को नहीं बल्कि अपने मौसमी लाभ के लिए गढ़े गए एकांगी राम को ही सर्वस्व की तरह परोस रही है। यह लोक के सावधान होने का समय है। उसे लिखित और राजनीतिक दोनों धाराओं की चालाकियों से अपनी सहजता को बचाए रखना होगा।

-आलोक कुमार मिश्रा