चुनावी मौसम आ गया है। राजनीति में राम की जय जयकार चहुँ ओर गूँजने लगी है। किंतु भारतीय लोक मानस में राम कोई मौसमी आमद नहीं हैं। राम और राम की जीवनवृत्ति भारतीय संस्कृति और परंपरा में गहराई से गुथी हुई है। बाल्मीकि लिखित रामायण हो, तुलसी का मानस हो या किसी और महाकवि की राम को लेकर रचना सब लोक के 'रामायण' में गुंथे हुए हैं वहीं इनके अपने भिन्न आयाम और वर्जन भी हैं। इनका कुछ हिस्सा लिखित स्त्रोतों से निकला है तो बहुत बड़ा हिस्सा श्रुति और मौखिक परंपरा से आगे बढ़ा है। क्षेत्र और समुदाय के हिसाब से इनमें पर्याप्त विविधता तो है किंतु मान्यता और सम्मान के स्तर पर लोक के राम इन लिखित महाआख्यानों के राम से कमतर नहीं हैं। बल्कि अपने इस वैविध्य से ही राम भारतीय समाज में सर्वग्राही और सर्व सुलभ रहे हैं। यह विशेषता ही राम की सही मायने में लोक में पैठ का बड़ा कारण रही है। इसे नामों, परंपराओं, व्यवहारों या अन्य विविध संदर्भों में देखा जा सकता है।
पर समाज या लोक के राम के बरक्स राजनीति के राम जिसका उद्भव एक आधुनिक घटना है कुछ अलग है। राजनीति के राम लोक के बहु आयामी राम की जगह एकरूपी हैं। यह धारा लिखित परंपरा पर आधारित होने का दावा तो करती है किंतु वह उनसे वही हिस्सा या पक्ष उठाती है जो राजनीतिक फायदे के नजरिये से काम आ सके। हाल के वर्षों में राम के शूरवीर और बहुसंख्यक समाज के नायक की पुख्ता होती छवि में यही राजनीति काम करती रही है जो अयोध्या में उपजे विवाद और मस्जिद ध्वंस तक चरम पर पहुँच गई। आज की राजनीति में राम फिलहाल इसी छवि में विराजमान हैं। लोक मानस के राम जो कई मायनों में अधिक तार्किक, लोक जीवन के निकट, मानवीय और विविधता के अनुरूप है इस राजनीतिक छवि वाले राम से अलग हैं। कुछ मामलों में तो यह राजनीतिक धारा अपनी रूढ़ समझ और सीमित उद्देश्य के अनुरूप इन लोक छवियों को अपने खिलाफ मानती है। मुख्यधारा के संचार माध्यमों से इन विविध लोक धाराओं को साजिश के तौर पर प्रचारित करना और राम की सुकोमल, आज्ञापालक, मर्यादापूर्ण व अधिक मानवीय छवि की जगह युद्ध नायक की छवि को उभारना राजनीतिक धारा का मुख्य शगल रहा है। कुछ वर्ष पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में रामायण के प्रचलित विविध वर्जन संबधी किसी पुस्तक को लेकर बहुत विवाद काटा गया। क्योंकि इसमें राजनीतिक धारा द्वारा प्रचारित राम के रूप से अलग भारतीय समाज के भिन्न-भिन्न स्वरूपों में प्रचलित बहुकथाओं की बात कही गई थी। पर यह घटना वास्तविकता को दबा नहीं सकती थी। यहाँ वैसे भी 'हरि अनंत हरि कथा अनंता ' का भाव मान्य रहा है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश से संबंधित होने के कारण उस क्षेत्र में प्रचलित मौखिक परंपरा के राम को भी मैं उतना ही जानता हूँ जितना बाल्मीकि या तुलसी के राम को। भारतीय समाज का प्राचीन समय से ही वर्ण व्यवस्था और पितृसत्तात्मक संरचना पर आधारित होने के कारण यहाँ के लिखित आख्यानों में भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है। इसमें किसी बड़ी घटना के घटित होने की जिम्मेदारी आसान शिकार की तरह समझे जाने वाले कमजोर तबके से जुड़े लोगों के सिर पर डाल देने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। रामायण की कहानी में दासी मंथरा की साजिश, धोबी के ताना देने पर सीता जी को वनवास देना, कैकेयी के षड्यंत्र, शूर्पनखा की खल भूमिका आदि को सभी बुरी घटनाओं के उत्प्रेरक के रूप में दिखाया गया है। महाभारत के आख्यान में भी कुछ यही स्त्री और 'शूद्र' विरोधी प्रवृत्ति दिखाई देती है। किंतु लोक की मौखिक परंपरा जो जन समुदायों की थाती है बहुत तरीके से इन मान्यताओं का प्रतिरोध ही नहीं करती बल्कि कहीं अधिक मानवीय और कुछ मामलों में अधिक तार्किक वर्जन उपलब्ध कराती हैं। मेरे दादाजी सहित अन्य बड़े बूढ़े या बूढ़ियों से मैंने राम के एक बहन होने की मान्यता के बारे में सुना था। जबकि इस बारे में बाल्मीकि या तुलसी की रचनाओं में कोई जिक्र नहीं है। ऐसा कहा जाता है कि वनवास से लौटने के बाद राजा बनने के बाद श्री राम ने सीता जी का त्याग करते हुए वनवास भेज दिया था। इस घटना में एक धोबी द्वारा दिए गये सीता जी से जुड़े ताने को कारण माना जाता है जिसमें उसने रावण की लंका में सीता जी के रहने के कारण उनकी शुचिता पर प्रश्न उठाया गया था। इस बात को प्रजा पालक राम ने प्रजा की इच्छा मानते हुए सीता का त्याग कर दिया। इस पूरे प्रकरण में स्वयं राम की इच्छा या सीता को लेकर उनके मन में रहे भावों की कोई भूमिका नहीं दिखाई जाती जबकि सीता की अग्नि परीक्षा लेकर राम पहले से ही इस मामले में अपनी सोच को दर्शा चुके थे। अब इसी घटना को मेरे गाँव की लोक परंपरा के मौखिक आख्यान में जिस तरह से दुहराया जाता है वह कहीं अधिक वास्तविक और तार्किक जान पड़ता है। इस कथा में दुहराया जाता है कि ' वनवास से लौटने और राम के राजा बन जाने के बाद एक दिन सीता जी से उनकी नन्द यानि राम की बहन ने राम रावण युद्ध के बारे में विस्तार से जानना चाहा। जब सीता जी ने उन्हें पूरी कथा विस्तार से सुनाई तब उनके मन में यह जानने की इच्छा जागृत हुई कि रावण जैसा बलशाली और प्रतापी व्यक्ति दिखता कैसा था? नन्द की इच्छा को देखते हुए सीता जी ने अपनी स्मृति से रावण का एक चित्र बनाकर दिखाया जोकि हूबहू वास्तविक रावण जैसा ही था। यह चित्र जब राम जी ने देखा तो उनके मन में सीता को लेकर यह संशय पैदा हुआ कि आखिर बिना पूरे मन से आसक्ति के साथ रावण को निहारे बिना सीता ऐसा जीवंत चित्र कैसे बना सकती हैं? यहीं से उनके मन में सीता जी के प्रति विरक्ति पैदा हो गई और उन्होंने उनका त्याग कर दिया।' राम की एक बहन होने की एक पुष्टि अभी हाल ही में एक चैनल पर दिखाए गए सीरियल 'सिया के राम' से भी हुई जिसमें लिखित परंपरा के आधार पर उस चरित्र का नाम 'शांता' होने का दावा किया गया था। हालांकि उसमें इस कथा का वर्णन न होकर इसे दूसरे संदर्भ में प्रस्तुत किया गया था। अब इस लोक कथा को हम देखें और लिखित तथा व्यापक रूप से प्रचलित कहानी को भी देखें तो लोक कथा समाज के निम्न माने जाने वाले तबको स्त्रियों या 'अवर्णो' पर दोष डालकर बरी हो जाने की लिखित व पारंपरिक प्रवृत्ति के बजाय ज्यादा मानव सुलभ स्वभाव के अनुकूल है। अब राजनीतिक धारा भले ही राम पर दोषारोपण की इस लौकिक परंपरा को षडयंत्र माने किंतु यहाँ के लोकगीतों में भी स्त्रियाँ इसे अन्याय मानते हुए अपना सशक्त प्रतिरोध जताती हैं। ऐसा करते हुए कहीं से भी राम की महत्ता या गरिमा कम नहीं होती बल्कि राम कथा का एक अर्थ में लोकतंत्रीकरण ही होता है जिसमें प्रजा या भक्त सवाल उठा सकते हैं।
ऐसी ही भिन्न प्रस्तुति और भी कई लोक कथाओं या मौखिक परंपराओं में उपस्थित हैं। इसी क्षेत्र में कास नाम के एक विशेष घास जो धारदार होते हैं से जुड़ी मान्यता भी प्रतिरोध और प्रतिवाद की संस्कृति को बयान करती है। माना जाता है कि ए पवित्र घास सीता जी के बाल हैं। जब वह अंतिम समय में पृथ्वी की गोद में समाने लगीं तब दौड़कर श्री राम ने उन्हें पकड़ना चाहा। इस कोशिश में सीता जी के बाल उनके हाथ में आए, किंतु राम से नाराज सीता जी के केशों ने इस धारदार घास का रूप रख लिया और राम जी को उसे छोड़ना पड़ा। यह मान्यता कहीं न कहीं परंपरा में निहित स्त्रीवादी प्रतिरोध को ही दर्शाती है। इसी तरह सीता जी के जन्म, विवाह, रावण से संबंधित जीवन पक्ष आदि पर मौखिक परंपरा में कई भिन्न कथाएँ प्रचलित हैं। लोकगीतों में सीता जी द्वारा माता कौशिल्या को उलाहना देते हुए यह कहना कि 'काहे जन्म्यू तू ऐसन पपियवा कि नाही निभवलिस वचनिया रे राम ' (यानि तुमने ऐसे पापी को जन्म क्यों दिया जो अपने विवाह के वचन भी नहीं निभा सका) कहीं न कहीं स्त्रियों का स्त्रियों के पक्ष में दुहराया जाने वाला समवेत स्वर है। राजनीति इस वैविध्यपूर्ण और सार्वभौमिक राम को नहीं बल्कि अपने मौसमी लाभ के लिए गढ़े गए एकांगी राम को ही सर्वस्व की तरह परोस रही है। यह लोक के सावधान होने का समय है। उसे लिखित और राजनीतिक दोनों धाराओं की चालाकियों से अपनी सहजता को बचाए रखना होगा।
-आलोक कुमार मिश्रा
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